Wednesday 2 October 2013

कुँवार

मानुष जोनि के मरम ल समझव कर लव अपन-अपन उध्दार
एही गहन - गरिमा  मनखे  के  समझावत  हे  मनहर  कुँवार ।

पितर -  समर्पित  कुँवार -  महीना   कृतज्ञता   के  ज्ञापन  ए
पितर  ल  सब  देवता  कस  मानव  सरल- सहज संभाषण ए ।

घेरी -  बेरी   भारत  म  जनमँव  नर -  तन   पावौं   बारम्बार
शरद  के  कुनकुन  घाम  ल  ले के आ गए हावै हितवा कुँवार ।

जीवन   बहुत   अमोल   हे  भाई  बडभागी   मन  ल  मिलथे
लख - चौरासी  जनम  भटक  के  नर- तन के कँवल खिलथे ।

एही  जनम  हो  जावय  आखरी  हे  करुणा  के  सिंधु- अपार
तोर  शरण  म  हम  आए  हन  कर  दे  प्रभु  जी  बेडा -  पार ।

घेरी - बेरी  गिरेन - हपटेन  फेर  कहॉं  थिराए  हन  भगवान
आजे-आज एदे अभी-अभी म जम-कुरिया म पहुँचिस प्रान ।

तहीं  बचा  ले   प्रभु  अब  मोला  यक्ष -  प्रश्न  ले  तहीं  उबार
कर्म   कहॉं   मोर   बस  म  हावै  तहीं  खेवैया  हौं  मँझधार ।

कभु   जान   के   कभु  अनजाने  दुख  देहेंव  प्रानी  मन  ल
मान - अपमान  एक  नइ समझेंव दुखी करेंव संगी मन ल ।

पर- उपकार  के  महिमा  समझव  एही ए जिनगी के सार
सोनहा- घाम  ल  धरे  कुँवार  ह करथे सब झन के उपकार ।

शारदीय- नेवरात  ह  आ गे  गावत  हें  सब  जस  के गीत
मॉं  के  महिमा  सब  ले बढ के तहूँ मान मोर मन के मीत ।

सब  झन  मॉं  के  शरन  परे  हें मॉ मोर जिनगी होगे भार
सबके   बिगडी   ओही   बनाथे   मोरो   डोंगा   करही  पार ।

निसर्ग -  नहाए  हे  गोरस  म  चंदा  के   हे  शीतल - छॉंव
सरग  के  सुख  ल  इहें  भोग  ले चाहे  बस्ती हो चाहे गॉंव ।

पुन्नी - रात  कमलिनी  संग  म मन के खुला हावय दुवार
तहूँ ह जी अउ सब ल जियन दे समझावत हे उज्जर कुँवार।

चंदा   सबके   मन - मोहे   हे   डोलत   नइए  मनखे - मन
जइसे  कहत हे पुन्नी परी ह वोइसने नाचत हें सब्बो झन ।

कुँवार  महीना  सुखद  हे  सुघ्घर  समझाथे  पोथी  के सार
दुनों  डहर  दुनियॉं  दुधिया  हे मनखे मन के दिया ल बार । 

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ. ग. ]

   

1 comment:

  1. कविता के माध्यम से एक सार्थक सन्देश। विजयदशमी की शुभकामनाएं।

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