मानुष जोनि के मरम ल समझव कर लव अपन-अपन उध्दार
एही गहन - गरिमा मनखे के समझावत हे मनहर कुँवार ।
पितर - समर्पित कुँवार - महीना कृतज्ञता के ज्ञापन ए
पितर ल सब देवता कस मानव सरल- सहज संभाषण ए ।
घेरी - बेरी भारत म जनमँव नर - तन पावौं बारम्बार
शरद के कुनकुन घाम ल ले के आ गए हावै हितवा कुँवार ।
जीवन बहुत अमोल हे भाई बडभागी मन ल मिलथे
लख - चौरासी जनम भटक के नर- तन के कँवल खिलथे ।
एही जनम हो जावय आखरी हे करुणा के सिंधु- अपार
तोर शरण म हम आए हन कर दे प्रभु जी बेडा - पार ।
घेरी - बेरी गिरेन - हपटेन फेर कहॉं थिराए हन भगवान
आजे-आज एदे अभी-अभी म जम-कुरिया म पहुँचिस प्रान ।
तहीं बचा ले प्रभु अब मोला यक्ष - प्रश्न ले तहीं उबार
कर्म कहॉं मोर बस म हावै तहीं खेवैया हौं मँझधार ।
कभु जान के कभु अनजाने दुख देहेंव प्रानी मन ल
मान - अपमान एक नइ समझेंव दुखी करेंव संगी मन ल ।
पर- उपकार के महिमा समझव एही ए जिनगी के सार
सोनहा- घाम ल धरे कुँवार ह करथे सब झन के उपकार ।
शारदीय- नेवरात ह आ गे गावत हें सब जस के गीत
मॉं के महिमा सब ले बढ के तहूँ मान मोर मन के मीत ।
सब झन मॉं के शरन परे हें मॉ मोर जिनगी होगे भार
सबके बिगडी ओही बनाथे मोरो डोंगा करही पार ।
निसर्ग - नहाए हे गोरस म चंदा के हे शीतल - छॉंव
सरग के सुख ल इहें भोग ले चाहे बस्ती हो चाहे गॉंव ।
पुन्नी - रात कमलिनी संग म मन के खुला हावय दुवार
तहूँ ह जी अउ सब ल जियन दे समझावत हे उज्जर कुँवार।
चंदा सबके मन - मोहे हे डोलत नइए मनखे - मन
जइसे कहत हे पुन्नी परी ह वोइसने नाचत हें सब्बो झन ।
कुँवार महीना सुखद हे सुघ्घर समझाथे पोथी के सार
दुनों डहर दुनियॉं दुधिया हे मनखे मन के दिया ल बार ।
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ. ग. ]
एही गहन - गरिमा मनखे के समझावत हे मनहर कुँवार ।
पितर - समर्पित कुँवार - महीना कृतज्ञता के ज्ञापन ए
पितर ल सब देवता कस मानव सरल- सहज संभाषण ए ।
घेरी - बेरी भारत म जनमँव नर - तन पावौं बारम्बार
शरद के कुनकुन घाम ल ले के आ गए हावै हितवा कुँवार ।
जीवन बहुत अमोल हे भाई बडभागी मन ल मिलथे
लख - चौरासी जनम भटक के नर- तन के कँवल खिलथे ।
एही जनम हो जावय आखरी हे करुणा के सिंधु- अपार
तोर शरण म हम आए हन कर दे प्रभु जी बेडा - पार ।
घेरी - बेरी गिरेन - हपटेन फेर कहॉं थिराए हन भगवान
आजे-आज एदे अभी-अभी म जम-कुरिया म पहुँचिस प्रान ।
तहीं बचा ले प्रभु अब मोला यक्ष - प्रश्न ले तहीं उबार
कर्म कहॉं मोर बस म हावै तहीं खेवैया हौं मँझधार ।
कभु जान के कभु अनजाने दुख देहेंव प्रानी मन ल
मान - अपमान एक नइ समझेंव दुखी करेंव संगी मन ल ।
पर- उपकार के महिमा समझव एही ए जिनगी के सार
सोनहा- घाम ल धरे कुँवार ह करथे सब झन के उपकार ।
शारदीय- नेवरात ह आ गे गावत हें सब जस के गीत
मॉं के महिमा सब ले बढ के तहूँ मान मोर मन के मीत ।
सब झन मॉं के शरन परे हें मॉ मोर जिनगी होगे भार
सबके बिगडी ओही बनाथे मोरो डोंगा करही पार ।
निसर्ग - नहाए हे गोरस म चंदा के हे शीतल - छॉंव
सरग के सुख ल इहें भोग ले चाहे बस्ती हो चाहे गॉंव ।
पुन्नी - रात कमलिनी संग म मन के खुला हावय दुवार
तहूँ ह जी अउ सब ल जियन दे समझावत हे उज्जर कुँवार।
चंदा सबके मन - मोहे हे डोलत नइए मनखे - मन
जइसे कहत हे पुन्नी परी ह वोइसने नाचत हें सब्बो झन ।
कुँवार महीना सुखद हे सुघ्घर समझाथे पोथी के सार
दुनों डहर दुनियॉं दुधिया हे मनखे मन के दिया ल बार ।
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ. ग. ]
कविता के माध्यम से एक सार्थक सन्देश। विजयदशमी की शुभकामनाएं।
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