भूमिका
छत्तीसगढी कविता में समकालीनता का स्पन्दन - स्वागतेय है लेकिन ऑचलिकता को अग्राह्य करके नहीं , आधुनिकता का आग्रह अपेक्षणीय है लेकिन अस्मिता को अस्वीकार करके नहीं । छत्तीसगढी में कुछ स्वनाम - धन्य ऐसे समीक्षक हैं जो छत्तीसगढी लोक - जीवन की अभिहिति को परम्परा मानकर उसे प्रगतिशीलता की लपेट में लेने का तथ्य निवेदित करते हैं । यह थीक है कि एक ही विषय- वस्तु और शिल्प की छत्तीसगढी कवितायें अधिक आ रही हैं और इनमें पिष्टपेषण की प्रवृत्ति ऊब - उदासी का उपक्रम उपस्थित कर रही हैं लेकिन आधुनिकता के नाम पर हिन्दी और भारतीय - भाषाओं का अंधानुकरण यदि एक ओर छत्तीसगढी में सम्भावनाओं की ज़मीन तलाशने वाले हिंदी के चुके हुए साहित्यकारों द्वारा छत्तीसगढी में घुसपैठ, भाषा और साहित्य को विकृति की खाई में धकेलने का षडयंत्र भी है । संक्रमण की इस संस्थिति में समीक्षा के सूप द्वारा - " सार - सार को गहि रहै , थोथा देई उडाय, " का समय आ गया है । अपनी हिन्दी रचनाओं का अनुवाद करके या अन्य महत्वपूर्ण हिन्दी और भारतीय भाषाओं की कृतियों का अनुवाद करके वे इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य कर सकते हैं लेकिन अनुवादक कहलाने की अपेक्षा कवि कहलाने के मोह ने छत्तीसगढी - साहित्य को संकट में डाल दिया है । इन तथाकथित समीक्षकों को कौन समझाए कि परम्परा का ही विकसित रूप आधुनिकता है । परम्परा से पृथक होकर न व्यक्ति ,जाति ,समाज व देश की पहचान सम्भव है , नही भाषा और साहित्य का मूल स्वरूप सुरक्षित है ।
छत्तीसगढी - भाषा की प्रकृति और साहित्य की प्रवृत्ति को समझते हुए जो मूल - रचना- धर्मी छत्तीसगढी - माटी के प्रति सच्ची - साधना में संलग्न हैं, उनमें शकुन्तला शर्मा का नाम महत्वपूर्ण है । शकुन्तला प्रथम छत्तीसगढी कवयित्री के रूप में जानी जाती है इसके पूर्व किसी भी कवयित्री की प्रकाशित कविता या संग्रह मेरे देखने में नहीं आया । " चंदा के छॉव म " के पश्चात् इनका " कुमारसम्भव " नामक एक महाकाव्य भी आ चुका है और अब यह काव्य - संग्रह - " चन्दन कस तोर माटी हे " आपके समक्ष प्रस्तुत है । कवयत्री की चिन्ता है कि धन - धान्य , अपार खनिज सम्पदा व देवी- देवताओं की कृपा के बाद भी, नक्सल वाद कलंक की तरह उभरा है " नक्सल ह दुर्दशा करत हे पूजत हे धर के आरी ।
पूजत हे धर के आरी ओ माई छत्तीसगढ महतारी ॥"
उपर्युक्त उद्धरण में ' पूजत ' शब्द = पूजन - अर्चन और 'प्राण ले लेना " दोनों अर्थों में प्रयुक्त है । बलि देने से पहले बकरे की पूजा की जाती है और बाद में उसे काट लिया जाता है । इस तरह इस शब्द में दोनों अर्थ समादृत हैं । यदि छत्तीसगढ की माटी चन्दन जैसी मम्हाती है तो इसमें नक्सल - वाद के सॉप भी लिपटे हुए हैं ।
प्रस्तुत संग्रह में जहॉ छत्तीसगढी बाल - गीतों की कमी की संपूर्ति की गई है, वहीं ' लोरी ' गीत लिख कर कवयित्री ने इस लुप्त होती परम्परा के संवर्धन की दिशा में नयी स्थापना दी है । छत्तीसगढी के लोक - छन्दों यथा जसगीत, होरी, सधौरी, भोजली, सोहर, गारी, पंथी, ददरिया,भरथरी, सुवा, करमा, नाचा, के प्रयोग और शास्त्रीय - रागों यथा - कजरी, ठुमरी आदि के उपयोग से , छत्तीसगढी गीतों में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पीठिका अंतर्भूत है । इस तरह यह संग्रह कई दृष्टियों से उल्लेखनीय बन पडा है । इसकी भाषा सरल - सहज व सुगम - सुबोध तो है ही , लोक - प्रचलित शब्दों को अंगीकार करने यथावसर मुहावरे - कहावतों को स्वीकार करने और ध्वन्यात्मकता को समाहार करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रमाणित हुई है । छत्तीसगढी में संस्कारी पाठकों को ये गीत रुचिकर प्रमाणित होंगे, ऐसी मेरी मान्यता है । शुभ - कामनाओं - सहित -
सी-62 , अज्ञेयनगर छत्तीसगढ डॉ. विनय कुमार पाठक
बिलासपुर-495001 [छ. ग.] एम. ए. पी. एच.डी. डी. लिट् [ हिन्दी ]
मो. 92298 79898 पी. एच. डी.डी.लिट्. [भाषा विज्ञान ]
निदेशक -प्रयास प्रकाशन
छत्तीसगढी कविता में समकालीनता का स्पन्दन - स्वागतेय है लेकिन ऑचलिकता को अग्राह्य करके नहीं , आधुनिकता का आग्रह अपेक्षणीय है लेकिन अस्मिता को अस्वीकार करके नहीं । छत्तीसगढी में कुछ स्वनाम - धन्य ऐसे समीक्षक हैं जो छत्तीसगढी लोक - जीवन की अभिहिति को परम्परा मानकर उसे प्रगतिशीलता की लपेट में लेने का तथ्य निवेदित करते हैं । यह थीक है कि एक ही विषय- वस्तु और शिल्प की छत्तीसगढी कवितायें अधिक आ रही हैं और इनमें पिष्टपेषण की प्रवृत्ति ऊब - उदासी का उपक्रम उपस्थित कर रही हैं लेकिन आधुनिकता के नाम पर हिन्दी और भारतीय - भाषाओं का अंधानुकरण यदि एक ओर छत्तीसगढी में सम्भावनाओं की ज़मीन तलाशने वाले हिंदी के चुके हुए साहित्यकारों द्वारा छत्तीसगढी में घुसपैठ, भाषा और साहित्य को विकृति की खाई में धकेलने का षडयंत्र भी है । संक्रमण की इस संस्थिति में समीक्षा के सूप द्वारा - " सार - सार को गहि रहै , थोथा देई उडाय, " का समय आ गया है । अपनी हिन्दी रचनाओं का अनुवाद करके या अन्य महत्वपूर्ण हिन्दी और भारतीय भाषाओं की कृतियों का अनुवाद करके वे इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य कर सकते हैं लेकिन अनुवादक कहलाने की अपेक्षा कवि कहलाने के मोह ने छत्तीसगढी - साहित्य को संकट में डाल दिया है । इन तथाकथित समीक्षकों को कौन समझाए कि परम्परा का ही विकसित रूप आधुनिकता है । परम्परा से पृथक होकर न व्यक्ति ,जाति ,समाज व देश की पहचान सम्भव है , नही भाषा और साहित्य का मूल स्वरूप सुरक्षित है ।
छत्तीसगढी - भाषा की प्रकृति और साहित्य की प्रवृत्ति को समझते हुए जो मूल - रचना- धर्मी छत्तीसगढी - माटी के प्रति सच्ची - साधना में संलग्न हैं, उनमें शकुन्तला शर्मा का नाम महत्वपूर्ण है । शकुन्तला प्रथम छत्तीसगढी कवयित्री के रूप में जानी जाती है इसके पूर्व किसी भी कवयित्री की प्रकाशित कविता या संग्रह मेरे देखने में नहीं आया । " चंदा के छॉव म " के पश्चात् इनका " कुमारसम्भव " नामक एक महाकाव्य भी आ चुका है और अब यह काव्य - संग्रह - " चन्दन कस तोर माटी हे " आपके समक्ष प्रस्तुत है । कवयत्री की चिन्ता है कि धन - धान्य , अपार खनिज सम्पदा व देवी- देवताओं की कृपा के बाद भी, नक्सल वाद कलंक की तरह उभरा है " नक्सल ह दुर्दशा करत हे पूजत हे धर के आरी ।
पूजत हे धर के आरी ओ माई छत्तीसगढ महतारी ॥"
उपर्युक्त उद्धरण में ' पूजत ' शब्द = पूजन - अर्चन और 'प्राण ले लेना " दोनों अर्थों में प्रयुक्त है । बलि देने से पहले बकरे की पूजा की जाती है और बाद में उसे काट लिया जाता है । इस तरह इस शब्द में दोनों अर्थ समादृत हैं । यदि छत्तीसगढ की माटी चन्दन जैसी मम्हाती है तो इसमें नक्सल - वाद के सॉप भी लिपटे हुए हैं ।
प्रस्तुत संग्रह में जहॉ छत्तीसगढी बाल - गीतों की कमी की संपूर्ति की गई है, वहीं ' लोरी ' गीत लिख कर कवयित्री ने इस लुप्त होती परम्परा के संवर्धन की दिशा में नयी स्थापना दी है । छत्तीसगढी के लोक - छन्दों यथा जसगीत, होरी, सधौरी, भोजली, सोहर, गारी, पंथी, ददरिया,भरथरी, सुवा, करमा, नाचा, के प्रयोग और शास्त्रीय - रागों यथा - कजरी, ठुमरी आदि के उपयोग से , छत्तीसगढी गीतों में आध्यात्मिक और सांस्कृतिक पीठिका अंतर्भूत है । इस तरह यह संग्रह कई दृष्टियों से उल्लेखनीय बन पडा है । इसकी भाषा सरल - सहज व सुगम - सुबोध तो है ही , लोक - प्रचलित शब्दों को अंगीकार करने यथावसर मुहावरे - कहावतों को स्वीकार करने और ध्वन्यात्मकता को समाहार करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रमाणित हुई है । छत्तीसगढी में संस्कारी पाठकों को ये गीत रुचिकर प्रमाणित होंगे, ऐसी मेरी मान्यता है । शुभ - कामनाओं - सहित -
सी-62 , अज्ञेयनगर छत्तीसगढ डॉ. विनय कुमार पाठक
बिलासपुर-495001 [छ. ग.] एम. ए. पी. एच.डी. डी. लिट् [ हिन्दी ]
मो. 92298 79898 पी. एच. डी.डी.लिट्. [भाषा विज्ञान ]
निदेशक -प्रयास प्रकाशन
'चन्दन कस तोर माटी हे' के प्रकाशन पर बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनायें!
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